मेरे अंतर की ज्वाला तुम घर-घर दीप शिखा बन जाओ।दिनकर का उर दाह धरा परसतरंगी किरणें बिखराता,जलधर खारा आँसू पीकरअमृत पृथ्वी पर बरसाता,
घाव धरणि सहती छाती पर
और उमहती है फूलों में,
अपनी जाति-वंश मर्यादा, हे मन, दुख में भूल न जाओ।मेरे अंतर की ज्वाला तुम घर-घर दीप शिखा बन जाओ।पूण्य इकट्ठा होता है तबआग कलेजे में आती है,इसका मर्म समझते वे हीजिनका तन यह सुलगाती है,
भीतर ही रखते जो इसको
बनते राख-धुँए की ढेरी,
बाहर यह गाती, मुस्काती, ताप बटोरो, ज्योति लुटाओ।मेरे अंतर की ज्वाला तुम घर-घर दीप शिखा बन जाओ।
हरिवंशराय बच्चन
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बहुत सुन्दर प्रस्तुति। धन्यवाद।
ReplyDeleteप्रवीन जी को मेरा प्यार भरा नमस्कार ,
ReplyDeleteहरिवंश जी हर कविता दिल को छू जाती है ..
ब्लॉग की दुनिया में आपका स्वागत है....
सादर व साभार,
शलभ गुप्ता "राज"
dhanyawad paramjit and shalabh "RAJ",
ReplyDeleteaap se mil kar accha laga
aapaki kavita ek achhe sahitya ki pehachaan hai
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