marathi blog vishwa

Monday, June 7, 2010

यह कविता मुझे बहोत अच्छी लगती है

मेरे अंतर की ज्वाला तुम घर-घर दीप शिखा बन जाओ।दिनकर का उर दाह धरा परसतरंगी किरणें बिखराता,जलधर खारा आँसू पीकरअमृत पृथ्वी पर बरसाता,
घाव धरणि सहती छाती पर
और उमहती है फूलों में,
अपनी जाति-वंश मर्यादा, हे मन, दुख में भूल न जाओ।मेरे अंतर की ज्वाला तुम घर-घर दीप शिखा बन जाओ।पूण्य इकट्ठा होता है तबआग कलेजे में आती है,इसका मर्म समझते वे हीजिनका तन यह सुलगाती है,
भीतर ही रखते जो इसको
बनते राख-धुँए की ढेरी,
बाहर यह गाती, मुस्काती, ताप बटोरो, ज्योति लुटाओ।मेरे अंतर की ज्वाला तुम घर-घर दीप शिखा बन जाओ।


हरिवंशराय बच्चन

4 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति। धन्यवाद।

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  2. प्रवीन जी को मेरा प्यार भरा नमस्कार ,

    हरिवंश जी हर कविता दिल को छू जाती है ..
    ब्लॉग की दुनिया में आपका स्वागत है....

    सादर व साभार,
    शलभ गुप्ता "राज"

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  3. dhanyawad paramjit and shalabh "RAJ",
    aap se mil kar accha laga

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  4. aapaki kavita ek achhe sahitya ki pehachaan hai

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